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मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

भूलतीं,विसरती यादों में।

                   भूलतीं, विसरती यादों में
                     कठकुइयाँ शुगर फैक्ट्री

मैं इसलिये इस मुद्दे पर लिख रहा हूँ क्योंकि जिनका बचपन इसी फैक्ट्री के धुओं को अपने नन्हे हाथों से छाटते हुये बिता हो और जिनकी जवानी में विद्यालय का थैला इसी की सीटियों के साथ उठता रहा हो, जिनके घरो का चूल्हा इसी के सीटियों पर जलता हो उन्हें तो ये फैक्ट्री अपने जीवन में कभी नही भूलनी चाहिये।
आज दिनों दिन इस फैक्ट्री का अस्तित्व  और लोगों की यादों का समंदर सूखता जा रहा है  या यह कहें तो फैक्ट्री को जड़ से तोड़ा जा रहा है सुना था कि जब हमारे सामने हमसे जुड़ी हुईं चीज़े मिटती है तो अफ़सोस तो होता ही हैं पर उस से कहीं ज़्यादा अंदर की कसमसाहटो का सैलाब या यूं कहें तो सुनामी सी आ जाती हैं।


हमारे गाँव से क़रीब 3 किमी की दूरी पर कभी चालू हालत में ये फैक्ट्री हुआ करती थी जिसकी जड़ें भी आज निस्तोनाबूत होतीं जा रही हैं बताने वाले तो ये बतातें हैं कि जब यह चालू हालत में थी तो अगल-बगल के गांवों सहित कठकुइयाँ में भी एक अलग तरह का खुशनुमा माहौल हुआ करता था लेक़िन 1998 के पेराई सत्र में बढ़ते कर्ज़ के कारण शुरू न हो सका और इसी वर्ष से किसानों की और फैक्ट्री के कर्मचारियों की मुसीबतों ने जन्म लेना शुरू किया। कितनों के घरों से रौनक ही छीन गई और कितनों के तो अपने बकाया भुगतान राशि पाने के आश में  जिंदगी के दीपक ही बुझ गए।
आज जो सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां दूर-दराज से आये कर्मचारियों का वेतन बकाया होने के कारण वे इसी आश में यहीं फैक्ट्री के आवासों में रहने लगे कि आज नहीं तो कल किसानों के बकाये के साथ इनका भी भुगतान हो जाएगा पर भुगतान तो न हो सका पर आज जिनके सिर से छत भी छिनने की कोशिश में इस मिल का खरीददार लगा हुआ हैं तो वो क़भी फैक्ट्री के कर्मचारी हुआ करते थे
पर आज उन्हीं के सामने उनकी यादों के पुलों को झकझोर कर गिराया जा रहा है तो यही लोग अपने पैसे को भुलाकर अपनी छत के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं। 



किसानों की व्यथा और विकास बाधित

जब फैक्ट्री चालू हालत में थी तो बतानें  वाले लोग तो यहीं बताते है कि जब गन्ना सत्र प्रारम्भ होता था तो यहाँ बैलगाड़ियों, ट्रैक्टरों व किसानों का हुजूम देखते बनता था किसानों कि आपसी बातों व चाय की चुस्कियों के साथ एक प्रतिस्पर्धा का भाव झलकता था
पर आज वो हुजूम न जाने कहा गायब हो गया। और प्रतिस्पर्धा तो खत्म ही हो गया अब तो इस इलाक़े का विकास भी बाधित हो गया और किसानों की हालत तो दिन ब दिन बद से बत्तर होती जा रही है और अपना गन्ना औने-पौने दामों पर बेच कर मुनाफ़ा तो दूर लागत भी नसीब न हो रहा है।

एक बार आकर देख, कैसा हृदय विदारक मंजर है,
पसलियों से लग गयी है आंतें, खेत अभी भी बंजर है।

जनता की उम्मीदों पर खरा न उतरा राजनीतिक तबका

चुनावी जुमले व मिल मालिकों की चालाकी का अंजाम आज कठकुइयाँ में काम कर रहें कर्मचारी व किसान तबका अपने सोने के पहाड़ को रुई की ढेर की तरह उड़ता हुआ देख रहा हैं हाल ही कि एक घटना चुनावी रैलियों में माननीय लोकप्रिय प्रधानमंत्री जी व इस क्षेत्र के सांसद जी ने कठकुइयाँ जैसी अन्य 9 मिलो में से कुछ को चलाने का वादा किया था इसमें पडरौना का नाम प्रमुख था पर हुआ क्या?
किसानों से अब कहाँ वो मुलाकात करते है,
बस रोज नये ख्वाबों की बात करते है।

दो शब्द(किसानों के लिए)

हर वक़्त हर जगह किसानों की ही बात सुनता हूं टेलीविजन से लेकर सोशल मीडिया तक पर न जाने कब उनके बाग हरे भरे होंगे औऱ न जाने कब उनकी गलियाँ गुलजार होगीं। औऱ न जाने कब ये भी गर्व से बोल सकेंगे कि मैं भी किसान हूँ। और न जाने कब हमारी आँखों मे इस अन्नदाता के लिए सम्मान का दीप जलेगा।और न जाने कब सर पर पगड़ी बाँधे उस किसान को हम सम्मान से देखेंगे।

मर रहा सीमा पर जवान और खेतों में किसान
कैसे कह दूं इस दुःखी मन से की मेरा भारत महान।
                                      धन्यवाद