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शनिवार, 17 मार्च 2018

समाज मे बेटियों की स्थिति

                 समाज में बेटियों की स्थिति

               

आज हम बात बेटियों की स्थिति के विषय पर करने जा रहे हैं। सरकारी वादों व तमाम समाज सेवी संस्थाओं ने बेटियों के प्रति प्रोत्साहन में कोई कमी नहीं छोड़ी, पर कई क्षेत्रों में तो बेटियाँ उच्च शिखर पर हैं और कहीं तो इस समाज के कुंठित सोच के दलदल में फँसकर और फँसती जा रही हैं।
सरकार के तमाम वादे तो बहुत ही सजग व सही दिशा में हैं।
परन्तु सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी इस पुरुष प्रधान देश मे कहीं तो बेटियों की स्थिति खिलते फूल के समान हैं तो कहीं सूखे पत्ते से भी बत्तर, जिसे अपने समाज में शिक्षा से भी वंचित रखा जाता है।
आज भी कई राज्यों में लिंगानुपात में कहीं ज़्यादा बढ़ोत्तरी नहीं हुई है, पर यहाँ हम शासन को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते, क्योंकि शासन तो सिर्फ़ प्रोत्साहित करेगी, पर सोचना और शासन के कार्यों को मूर्त रूप देना तो जनता की सोच पर निर्भर करता है।.



                    लक्ष्मी का वरदान है बेटी,
                   धरती पर भगवान है बेटी।

हमारे देश के प्रधानमंत्री जी ने तो यह ठान लिया है कि हम बेटियों की स्थिति बेहतर करेंगे, पर क्या वह कम लिंगानुपात वाले राज्यों में उन घरों के लोगों तक अपनी इस बात को पहुँचा पाएँगे, जिन्हें तो सिर्फ़ बेटों की भूख है ज़रा यह भी तो सोचो कि "बेटी नहीं बचाओगे,तो बहु कहाँ से लाओगे"।

चिंता का विषय

आज भी ग्रामीण इलाकों की बेटियों में शिक्षा का आभाव देखने को मिल रहा है, किसी-किसी प्रकार से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई कराके इन्हें घर के कामों में लगा दिया जाता है, या फिर इनका विवाह कर दिया जाता है।
बड़ी मुश्किल से आज कोई अभिभावक अपनी बेटी को शिक्षा के लिए घर से दूर भेज देता है, तो गाँव घर के तानों से भी नहीं बचता, पर यही कुछ लोगों की नज़रों
में तो बेटियाँ अभिशाप हैं और उनकी राय यही होती है कि "जननी को जननी के गर्भ में ही मार दो"क्योंकि 'ना रहेगा बाँस, और ना बजेगी बाँसुरी'।
लोग ये क्यों भूल जाते हैं, कि वे भी किसी जननी की ही देन हैं।
तुम्हारी माँ, पत्नी, बेटी, बहन, बहू, आदि, ये सभी बेटियाँ ही तो हैं।
प्रयास तो जारी है पर समस्या यह है, कि समाज में जब तक ये कुंठित सोच वाले लोग रहेंगे, तब तक अपनी गंदी सोच समाज मे बिखेरते रहेंगे। किसी ने सही कहा है कि अभी सौ सालों तक कुछ बदलने वाला नहीं है और ये सुधरने वाले लोग नहीं हैं।
जरा सोचिए कुछ राज्यों में तो महिलाए ही भ्रुण हत्या का समर्थन करती हैं, ये कैसी महिलाएँ हैं, सोच कर ही मन विचलित हो जाता है।

बेटी बचाओ और जीवन सजाओ,
                          बेटी पढ़ाओ और ख़ुशहाली बढ़ाओ।


शिक्षा के क्षेत्र में

शिक्षा के क्षेत्र में बेटियों की सफ़लता की कहानी लिखना शुरू करूँ तो स्याही कम पड़ जाए। चाहें वह शिक्षा, खेल या अंतरिक्ष की बात हो।
 पर आज भी ग्रामीण इलाकों का हाल वही है, स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है पर ज्यादा कहना गलत होगा।
ज्यादा से ज्यादा हाईस्कूल व इंटरमीडिएट तक पढ़ा कर इन्हें घर के कामों में लगा दिया जाता है, जो लोग यहाँ पढ़ाने में सक्षम हैं उनका भी हाल यही है।
जो लड़कियाँ कुछ करने के लिये अपने कदम बढ़ाती हैं तो कुछ अभिभावक ही उनके रास्ते का रोड़ा बन जाते हैं।

बेटियों को पढ़ाओगे,
             तो
                 इज्जत मुफ्त में पाओगे



देवी मत मानो बस दे दो सम्मान

यह हमारे समाज का दोहरा रवैया नहीं तो और क्या है कि एक तरफ बड़ी-बड़ी बातें तो दूसरी तरफ उसे गर्भ में ही मार दो।
बेटियों को देवी मानने या कन्या खिलाने का जो रिवाज़ है वह अपनी जगह है, लेकिन बेटियाँ ही शक्ति हैं। यदि मानते हैं तो उनका हक क्यों नही देते,उन्हें जन्म क्यों नहीं लेने देते?
सच है कि नवरात्र के दौरान देवी भक्ति में डूबे बहुत से लोग बस रस्मों को निभाने में तेजी दिखाते हैं, लेकिन यथार्थ से काफी दूर हैं। लोग रात-रात भर जागरण में देवी का गुणगान करते हैं, पर वास्तविकता यह है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा नहीं चाहता कि कन्या रूपी ये देवियांँ उनके यहाँ जन्म लें। पाप-पुण्य के सवालों से जूझता समाज इसे पाप क्यों नहीं मानता? इसे मानवीयता के लिहाज़ से देखने की बात तो दूर इसका सामाजिक दुष्प्रभाव क्या होगा शायद इसका भी ज्ञान नहीं।

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