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रविवार, 26 नवंबर 2017

शहीदों को नमन

                 शहीदों को नमन।                                            26/11                            आज 26/11 की नौवीं बरसी पर सलाम है उस जज़्बे व जुनून को जिसने आज से 9 साल पहले मुंबई को बचाने के लिये कुछ जाबाज सिपाहियों ने आतंकियों के गोलियों के सामने खड़े होकर अपनी जान पर खेल कर मुंबई को आतंकियों के खूनी खेल से बाहर निकाला। आज इसी सहादत को याद करने का दिन है
            
                     


याद दिला दे कि इस घटना में 166 लोगों की जान चली गई जिसमें 138 भारतीय और 28 विदेशी लोग थे 308 लोग से ज्यादा घायल हो गए थे ये पूरा ऑपरेशन 60 घंटे तक चला।

                                   

 इन 10 हमलावरों ने अलग-अलग होकर लियोपोल्ड कैफ़े,छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, ओबरॉय होटल,ताजमहल होटल,कामा अस्पताल, नरीमन हाऊस, मेट्रो सिनेमा,टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग इत्यादि जगहों पर मौत का भयानक तांडव चलाया।    


              जरा आँख में भर लो पानी।                                
                                       
26/11 की वो काली रात जिस में इन शहीदों ने अपनी जान पर खेलकर मुंबई को बचाया था उस रात जब देश के इन बहादुर सिपाहियों के शहीद होने की खबरें एक-एक कर जब टीवी पर आने लगी तो इन के परिवार वाले ये खबर सह नही पाये उस वक़्त मुंबई ATS प्रमुख हेमंत करकरे, एसीपी अशोक कामटे, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर,NSG कमांडो संदीप उन्नीकृष्णन, असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर तुकाराम गोपाल ओंबले सहित कुल 14 पुलिस वालों ने अपनी जान पर खेल कर मुंबई को बचाया था

        10 में 9 मारे गये जबकि 1 जिंदा पकड़ा गया  अजमल आमिर क़साब जिसे असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर तुकाराम गोपाल ओंबले ने जिंदा पकड़ लिया था तब उन के पास केवल एक डंडा था कसाब ने अपने आपको छुड़ाने के लिए तुकाराम को गोली भी मार दी थी। लेकिन खून से लथपथ तुकाराम ने कसाब को नही छोड़ा था।बाद में वे कसाब की गोली से शहीद हो गए। कसाब को 27 नवम्बर 2008 को गिरफ्तार हुआ जिसे 4 साल बाद लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद 21 नवम्बर 2012 को फांसी पर लटका दिया गया।
तुकाराम को मरणोपरांत अशोक चक्र से भी नवाजा जा चुका है ऐसे वीर तुकाराम को मेरा सलाम।                                       
                                                       धन्यवाद                                                      

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

आरक्षण पर सवाल

                     आरक्षण पर सवाल
मैं बात करने जा रहा हूँ उसी आरक्षण की जो अपने ही लोगों का हक़ मार रही है जिसे राजनीतिक पार्टियां बड़े चाव से खाती व परोसती है हाँ यह वही आरक्षण है जिसको लेकर उच्चतम न्यायालय भी अपने प्रश्नो से वंचित न रह सका।
बात पिछले दिनों की है जब पदोन्नति में आरक्षण के मसले पर एक याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट को अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण में क्रीमी लेयर की याद तो आई।
नही तो शायद कितने साल और लग जाते इस मंद सोच को पनपने में।                      
                                                      

ये लोग अपने ही लोगों का हक खा कर डकार भी नही लेते और डकार आये भी क्यों सवाल आज जो आया है?
और हर राज्य में किसी न किसी को आरक्षण की भूख लगीं बैठी है जो न तो वंचित शोषित तबके में आते है और न ही सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों में चुकी राजनीतिक दल आरक्षण मांग रहे समुदायों को नाराज करने की स्थिति में नही होते इसलिए वे उनकी मांग का विरोध भी नही कर पाते ।
एक समस्या यह भी है कि वे वोट बैंक बानने के फेर में आरक्षण की मांग करने वाले समुदाय के समर्थन में खड़े हो जाते है
                     
                     सवाल सुप्रीम कोर्ट का
जब सरकार द्वारा एक आयोग बनाकर ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण करने की पहल की और इसके लिए एक आयोग का गठन भी कर दिया। तभी यह सवाल उठा था कि यदि ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण किया जा सकता है तो एससी-एसटी का क्यो नही? इस सवाल पर किसी ने ध्यान नही दिया       
                                                                      
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के  इस सवाल की अनदेखी करना मुश्किल है
इसी सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट का  यह सवाल है कि क्या एससी-एसटी वर्ग के सामाजिक,शैक्षणिक एवम आर्थिक रूप से योग्य हो चुके लोग अपने लोगों का अधिकार नहीं छीन रहे है

आरक्षण में क्रीमी लेयर
ओबीसी आरक्षण की तरह एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान क्यों नही है? एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान न होना इसलिये एक तार्किक सवाल है, क्योंकि ओबीसी आरक्षण में उक्त प्रावधान शामिल है। यह प्रावधान इस लिए बनाया गया था ताकि ओबीसी के सम्पन लोगों को आरक्षण का लाभ उठाने से रोक जा सके

क्योंकि ओबीसी आरक्षण की तुलना में एससी-एसटी आरक्षण बहुत पहले से लागू है तो क्या बीते सात दशको में आज तक कोई एससी-एसटी में सामाजिक,शैक्षणिक और आर्थिक रूप से सम्पन नही हो पाया है अगर सम्पन नही हुआ तो फिर इसका मतलब यह कि आरक्षण उपयोगी साबित नही हो रही है अगर सम्पन लोग सामने आए तो इस का क्या औचित्य की पीढ़ी दर पीढ़ी ये आरक्षण का लाभ उठाते रहे?
दुर्भाग्य से जिन्हें यह सवाल करना चाहिए वह तो अपनी रोटियां इसी आग में सेक रहे है

एक सवाल और
आरक्षण को लेकर एक सवाल यह भी है कि प्रतिभा को नकारने वाली आरक्षण व्यवस्था कहा तक उचित है जब शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण दिया जा रहा है तो फिर नौकरियों में आरक्षण का क्या औचित्य?
यह सही समय है कि राजनीतिक वर्ग इस पर सहमत हो कि आरक्षण को इस रूप में लागू करने की आवश्यकता है जिससे एक तो पात्र लोग ही लाभान्वित हो सके और दूसरे प्रतिभा की उपेक्षा न हो ।
ऐसी व्यवस्था का निर्माण तभी संभव होगा जब यह स्वीकार किया जाएगा कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था में कई विसंगतिया घर कर गई है और वो समाज व देश को प्रभावी कर रही है।

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

बेटियों का क़ुसूर !

                         बेटियों का क़ुसूर।                                        इस घटना को पढ़ कर आप भी कहेंगे कि"अगले जनम मोहे बिटियां न कीजो" घटना अमृतसर से सहरसा जा रही जनसेवा एक्सप्रेस में एक बेरहम पिता ने अपनी चार मासूम बेटियों को चलती ट्रेन  से नीचे फेंक दिया।   
            
                                                                                                                                                                घटना मंगलवार प्रातः की है जिसमें छः वर्षीय बालिका का शव ट्रैक के किनारे जबकि दो मासूम बालिकाएं रेलवे ट्रैक पर घायल मिली और एक बच्ची अगले दिन बुधवार को मिली जिसे केजीएमयू ट्रॉमा सेंटर फेजा गया।
दो मासूम जो गंभीर रूप से घायल थी लेकिन इन घावों पर भारी थी भूख की पीड़ा जब लोग उनके पास पहुुंचे तो उन्होंने
खाने को मांगा यह देख सभी असहज थे
आख़िर बच्चियां कितने दिनों से भूखी है कि घाव का दर्द भी फीका पड़ गया कहीं घटना के पीछे तो भूख जिम्मेदार तो नही यह तो बेरहम अपनो के तलाश के बाद ही पता चलेगा।
आइये अब बात करते है कि जहाँ चारों तरफ बेटी बचाओ के  नारो के बीच यह घटना शर्मसार कर देंने वाली है एक अभिभावक की अपनी बेटियों के प्रति इतना निर्दयी हो सकना विश्वास नही होता।
बेटियां टूटे-फूटे शब्दों में बता रही है कि पिता ने ही बाहर फेका पर मौक़े पर माँ व मामा की भी मौजूदगी हैरान कर देने वाली है।



सच तो यही है कि सरकार कितने भी अभियान चला ले 'समाज मे बेटियों को अब भी बोझ माना जाता है'

इस से यही पता चलता है कि सोच में परिवर्तन की रफ्तार बहुत ही मंद है लोग बदलने को तैयार नही वरना क्या वज़ह है कि ट्रेन से फेंकी गई सब की सब बेटियां ही हैं।
इस हृदय विदारक घटना के पीछे जो भी हो उसे सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिये ताकि औरों को सबक मिल सके।
       
                                                                       धन्यवाद

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

बुजुर्गों की स्थिति

                            बुजुर्गों की स्थिति                                                                                                           हम बात उस सच की कर रहे जिसे हम अपने युवावस्था में भूल जाते हैं, भारत एक नवजवान देश है यह कहकर हम बुजुर्गों की अनदेखी कर रहे हैं 1अक्टूबर (International Day of Older Persons) आते ही हम बुजुर्गों की दयनीय स्थिति की चर्चा,समाज मे इस दिन बुजुर्गों को दया के भाव से देखा जाता है।
पर इस एक दिन के बाद इन चर्चाओं को सीमित कर दिया जाता है आखिर क्यों?
आजादी के 70 साल बाद भी कोई इन पर बात करने को तैयार तक नही है आख़िर क्यों ?

                                                                                                                                                                "विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्राऐं व्यर्थ है
    यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ है"

        

  बात बुजुर्गों की

                 
 
"कैक्टस को तो सजाकर वो गुलदान में रखता है     
      माँ-बाप को गैराज या दलान में रखता है"            

हमारे देश में 60 साल के बाद किसी भी व्यक्ति को मुख्यधारा से काट दिया जाता है और देश के विकास में इनकी स्थिति को शून्य मान लिया जाता है
देश मे बुजुर्गों की संख्या 10करोड़ 38लाख है,1करोड़ 50लाख अकेले रहने को मजबूर,5.5करोड़ बुजुर्ग रोज़ाना भूखे पेट सोते है।
हर 8में से एक बुजुर्ग को यह लगता है कि उनके होने या न होने से कोई फर्क नही पड़ता इसी बात का उदाहरण मैं बताना चाहता हूं बात मुंबई की है अमेरिका में रहने वाले एक बेटे ने अपने माँ से लगभग 1साल 4महीने तक कोई बात नही की वापस आने पर उसे केवल माँ का कंकाल मिला,
ये उस माँ का कंकाल नही ये रिश्तों का कंकाल है
आज भी 90% बुजुर्गों को सम्मान से जीने के लिए सारी उम्र काम करना पड़ता है
इसी प्रकार 2026 तक बुजुर्गों की संख्या 17 करोड़ तक हो जाएगी।
            बात सम्मान और सुधार की



बात बुजुर्गों की स्थिति को सुधारने की है हो हम चीन के शहर शांघाई से शिक्षा ले सकते है यह बुजुर्गों की अनेदखी करने पर माँ-बाप द्वारा उन पर केस किया जा सकता है
इस से संतान के क्रेडिट रिपोर्ट पर असर पड़ता है जिससे कर्ज लेने में असुविधा व अन्य वित्तीय सुविधा लेने में दिक्कत होंगी।
इस दिशा में असम राज्य द्वारा एक पहल किया गया है इस योजना को "प्रणाम"(पेरेंट रिसपॉन्सिबिलिटी एंड नॉर्म्स फॉर एकाउंटेबिलिटी एंड मॉनिटरिंग) है इस योजन के तहत यदि राज्य का कोई भी कर्मचारी अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करता है तो उस के वेतन से 10-15%काट कर माता-पिता को दे दिया जाएगा
ऐसी ही योजन पूरे देश मे होनी चाहिए ताकि बुजुर्गों को सम्मान मिल सके।
बुजुर्गों से बात करने पर वे बताते है की सड़क हो या बैंक या कोई अन्य स्थान उन से बुरा व्यवहार किया जाता है उन के कपड़ों को देखकर उनकी अवहेलना की जाती हैं।
             आइये कुछ करे उनके लिए
"माँ-बाप की कमी को कोई बाँट नही सकता और ईश्वर भी इनके आशीषों को काट नही सकता"
आइये हम समाज को साफ करने के संकल्प के साथ अपने परिवार के बुजुर्गों को सम्मान देने का भी संकल्प ले,जिससे समाज के साथ -साथ ही हम घर के माहौल को साफ व सम्मानजनक बनाये।
जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी भी सबक ले।..