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शनिवार, 17 मार्च 2018

समाज मे बेटियों की स्थिति

                 समाज में बेटियों की स्थिति

               

आज हम बात बेटियों की स्थिति के विषय पर करने जा रहे हैं। सरकारी वादों व तमाम समाज सेवी संस्थाओं ने बेटियों के प्रति प्रोत्साहन में कोई कमी नहीं छोड़ी, पर कई क्षेत्रों में तो बेटियाँ उच्च शिखर पर हैं और कहीं तो इस समाज के कुंठित सोच के दलदल में फँसकर और फँसती जा रही हैं।
सरकार के तमाम वादे तो बहुत ही सजग व सही दिशा में हैं।
परन्तु सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी इस पुरुष प्रधान देश मे कहीं तो बेटियों की स्थिति खिलते फूल के समान हैं तो कहीं सूखे पत्ते से भी बत्तर, जिसे अपने समाज में शिक्षा से भी वंचित रखा जाता है।
आज भी कई राज्यों में लिंगानुपात में कहीं ज़्यादा बढ़ोत्तरी नहीं हुई है, पर यहाँ हम शासन को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते, क्योंकि शासन तो सिर्फ़ प्रोत्साहित करेगी, पर सोचना और शासन के कार्यों को मूर्त रूप देना तो जनता की सोच पर निर्भर करता है।.



                    लक्ष्मी का वरदान है बेटी,
                   धरती पर भगवान है बेटी।

हमारे देश के प्रधानमंत्री जी ने तो यह ठान लिया है कि हम बेटियों की स्थिति बेहतर करेंगे, पर क्या वह कम लिंगानुपात वाले राज्यों में उन घरों के लोगों तक अपनी इस बात को पहुँचा पाएँगे, जिन्हें तो सिर्फ़ बेटों की भूख है ज़रा यह भी तो सोचो कि "बेटी नहीं बचाओगे,तो बहु कहाँ से लाओगे"।

चिंता का विषय

आज भी ग्रामीण इलाकों की बेटियों में शिक्षा का आभाव देखने को मिल रहा है, किसी-किसी प्रकार से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई कराके इन्हें घर के कामों में लगा दिया जाता है, या फिर इनका विवाह कर दिया जाता है।
बड़ी मुश्किल से आज कोई अभिभावक अपनी बेटी को शिक्षा के लिए घर से दूर भेज देता है, तो गाँव घर के तानों से भी नहीं बचता, पर यही कुछ लोगों की नज़रों
में तो बेटियाँ अभिशाप हैं और उनकी राय यही होती है कि "जननी को जननी के गर्भ में ही मार दो"क्योंकि 'ना रहेगा बाँस, और ना बजेगी बाँसुरी'।
लोग ये क्यों भूल जाते हैं, कि वे भी किसी जननी की ही देन हैं।
तुम्हारी माँ, पत्नी, बेटी, बहन, बहू, आदि, ये सभी बेटियाँ ही तो हैं।
प्रयास तो जारी है पर समस्या यह है, कि समाज में जब तक ये कुंठित सोच वाले लोग रहेंगे, तब तक अपनी गंदी सोच समाज मे बिखेरते रहेंगे। किसी ने सही कहा है कि अभी सौ सालों तक कुछ बदलने वाला नहीं है और ये सुधरने वाले लोग नहीं हैं।
जरा सोचिए कुछ राज्यों में तो महिलाए ही भ्रुण हत्या का समर्थन करती हैं, ये कैसी महिलाएँ हैं, सोच कर ही मन विचलित हो जाता है।

बेटी बचाओ और जीवन सजाओ,
                          बेटी पढ़ाओ और ख़ुशहाली बढ़ाओ।


शिक्षा के क्षेत्र में

शिक्षा के क्षेत्र में बेटियों की सफ़लता की कहानी लिखना शुरू करूँ तो स्याही कम पड़ जाए। चाहें वह शिक्षा, खेल या अंतरिक्ष की बात हो।
 पर आज भी ग्रामीण इलाकों का हाल वही है, स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है पर ज्यादा कहना गलत होगा।
ज्यादा से ज्यादा हाईस्कूल व इंटरमीडिएट तक पढ़ा कर इन्हें घर के कामों में लगा दिया जाता है, जो लोग यहाँ पढ़ाने में सक्षम हैं उनका भी हाल यही है।
जो लड़कियाँ कुछ करने के लिये अपने कदम बढ़ाती हैं तो कुछ अभिभावक ही उनके रास्ते का रोड़ा बन जाते हैं।

बेटियों को पढ़ाओगे,
             तो
                 इज्जत मुफ्त में पाओगे



देवी मत मानो बस दे दो सम्मान

यह हमारे समाज का दोहरा रवैया नहीं तो और क्या है कि एक तरफ बड़ी-बड़ी बातें तो दूसरी तरफ उसे गर्भ में ही मार दो।
बेटियों को देवी मानने या कन्या खिलाने का जो रिवाज़ है वह अपनी जगह है, लेकिन बेटियाँ ही शक्ति हैं। यदि मानते हैं तो उनका हक क्यों नही देते,उन्हें जन्म क्यों नहीं लेने देते?
सच है कि नवरात्र के दौरान देवी भक्ति में डूबे बहुत से लोग बस रस्मों को निभाने में तेजी दिखाते हैं, लेकिन यथार्थ से काफी दूर हैं। लोग रात-रात भर जागरण में देवी का गुणगान करते हैं, पर वास्तविकता यह है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा नहीं चाहता कि कन्या रूपी ये देवियांँ उनके यहाँ जन्म लें। पाप-पुण्य के सवालों से जूझता समाज इसे पाप क्यों नहीं मानता? इसे मानवीयता के लिहाज़ से देखने की बात तो दूर इसका सामाजिक दुष्प्रभाव क्या होगा शायद इसका भी ज्ञान नहीं।

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

भूलतीं,विसरती यादों में।

                   भूलतीं, विसरती यादों में
                     कठकुइयाँ शुगर फैक्ट्री

मैं इसलिये इस मुद्दे पर लिख रहा हूँ क्योंकि जिनका बचपन इसी फैक्ट्री के धुओं को अपने नन्हे हाथों से छाटते हुये बिता हो और जिनकी जवानी में विद्यालय का थैला इसी की सीटियों के साथ उठता रहा हो, जिनके घरो का चूल्हा इसी के सीटियों पर जलता हो उन्हें तो ये फैक्ट्री अपने जीवन में कभी नही भूलनी चाहिये।
आज दिनों दिन इस फैक्ट्री का अस्तित्व  और लोगों की यादों का समंदर सूखता जा रहा है  या यह कहें तो फैक्ट्री को जड़ से तोड़ा जा रहा है सुना था कि जब हमारे सामने हमसे जुड़ी हुईं चीज़े मिटती है तो अफ़सोस तो होता ही हैं पर उस से कहीं ज़्यादा अंदर की कसमसाहटो का सैलाब या यूं कहें तो सुनामी सी आ जाती हैं।


हमारे गाँव से क़रीब 3 किमी की दूरी पर कभी चालू हालत में ये फैक्ट्री हुआ करती थी जिसकी जड़ें भी आज निस्तोनाबूत होतीं जा रही हैं बताने वाले तो ये बतातें हैं कि जब यह चालू हालत में थी तो अगल-बगल के गांवों सहित कठकुइयाँ में भी एक अलग तरह का खुशनुमा माहौल हुआ करता था लेक़िन 1998 के पेराई सत्र में बढ़ते कर्ज़ के कारण शुरू न हो सका और इसी वर्ष से किसानों की और फैक्ट्री के कर्मचारियों की मुसीबतों ने जन्म लेना शुरू किया। कितनों के घरों से रौनक ही छीन गई और कितनों के तो अपने बकाया भुगतान राशि पाने के आश में  जिंदगी के दीपक ही बुझ गए।
आज जो सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां दूर-दराज से आये कर्मचारियों का वेतन बकाया होने के कारण वे इसी आश में यहीं फैक्ट्री के आवासों में रहने लगे कि आज नहीं तो कल किसानों के बकाये के साथ इनका भी भुगतान हो जाएगा पर भुगतान तो न हो सका पर आज जिनके सिर से छत भी छिनने की कोशिश में इस मिल का खरीददार लगा हुआ हैं तो वो क़भी फैक्ट्री के कर्मचारी हुआ करते थे
पर आज उन्हीं के सामने उनकी यादों के पुलों को झकझोर कर गिराया जा रहा है तो यही लोग अपने पैसे को भुलाकर अपनी छत के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं। 



किसानों की व्यथा और विकास बाधित

जब फैक्ट्री चालू हालत में थी तो बतानें  वाले लोग तो यहीं बताते है कि जब गन्ना सत्र प्रारम्भ होता था तो यहाँ बैलगाड़ियों, ट्रैक्टरों व किसानों का हुजूम देखते बनता था किसानों कि आपसी बातों व चाय की चुस्कियों के साथ एक प्रतिस्पर्धा का भाव झलकता था
पर आज वो हुजूम न जाने कहा गायब हो गया। और प्रतिस्पर्धा तो खत्म ही हो गया अब तो इस इलाक़े का विकास भी बाधित हो गया और किसानों की हालत तो दिन ब दिन बद से बत्तर होती जा रही है और अपना गन्ना औने-पौने दामों पर बेच कर मुनाफ़ा तो दूर लागत भी नसीब न हो रहा है।

एक बार आकर देख, कैसा हृदय विदारक मंजर है,
पसलियों से लग गयी है आंतें, खेत अभी भी बंजर है।

जनता की उम्मीदों पर खरा न उतरा राजनीतिक तबका

चुनावी जुमले व मिल मालिकों की चालाकी का अंजाम आज कठकुइयाँ में काम कर रहें कर्मचारी व किसान तबका अपने सोने के पहाड़ को रुई की ढेर की तरह उड़ता हुआ देख रहा हैं हाल ही कि एक घटना चुनावी रैलियों में माननीय लोकप्रिय प्रधानमंत्री जी व इस क्षेत्र के सांसद जी ने कठकुइयाँ जैसी अन्य 9 मिलो में से कुछ को चलाने का वादा किया था इसमें पडरौना का नाम प्रमुख था पर हुआ क्या?
किसानों से अब कहाँ वो मुलाकात करते है,
बस रोज नये ख्वाबों की बात करते है।

दो शब्द(किसानों के लिए)

हर वक़्त हर जगह किसानों की ही बात सुनता हूं टेलीविजन से लेकर सोशल मीडिया तक पर न जाने कब उनके बाग हरे भरे होंगे औऱ न जाने कब उनकी गलियाँ गुलजार होगीं। औऱ न जाने कब ये भी गर्व से बोल सकेंगे कि मैं भी किसान हूँ। और न जाने कब हमारी आँखों मे इस अन्नदाता के लिए सम्मान का दीप जलेगा।और न जाने कब सर पर पगड़ी बाँधे उस किसान को हम सम्मान से देखेंगे।

मर रहा सीमा पर जवान और खेतों में किसान
कैसे कह दूं इस दुःखी मन से की मेरा भारत महान।
                                      धन्यवाद

सोमवार, 1 जनवरी 2018

नशा

                                 नशा

                          देश व्यापी समस्या
आज इस वर्ष के पहले दिन को हम अपने जीवन में नई सोच,जोश और ऊर्जा के साथ शुरू करते है आईये इसी सकारात्मक सोच के साथ हम संकल्प करें कि हम नशा को पनपने से रोकेंगे हमारी ये पहल अगर एक को भी रोक देती है तो हम और आप यही समझेगे कि हमने एक जीवन को नर्क होने से बच लिया ।
आज नशा हमारे युवाओं-किशोरों को जड़ से खोखला कर रही है।

भारत मे पैसा नहीं होने के कारण पढ़ाई छोड़ने वाले बहुत मिल जायेंगे..
पर पैसा नहीं होने के कारण दारू,जुआ,गांजा, गुटका, तम्बाकू छोड़ने वाला कोई नहीं मिलेगा।





नशा एक समस्या -                                           
आज नशा हर वर्ग के लोगों के भीतर घर करता जा रहा है सबसे दुःख की बात है कि भारत की युवा पीढ़ी तेजी से नशे शराब-ड्रग्स के दलदल में जा रही हैं नशा समाज पर भारी बोझ डाल रहा है और इसके उपयोग से देश के किशोरों-युवाओं सहित एक बड़ी जनसंख्या जोख़िम में है नशा युवाओं और किशोरों के लिए अभिशाप है।

नशा का कारण -

उम्मीद न कोई आशा है अब चारों और निराश है बर्बाद तुम्हे ये कर देगा नशे की यही परिभाषा है।

भारत मे शराब ड्रग्स की आसानी से उपलब्धता कदम-कदम पर ठेके और अवैध नशे की उपलब्धता,आज के युग में मानसिक तनाव अवसाद भी किशोरों-युवाओं को नशे में ढकेल रहा है।
किशोरों युवाओं में नया प्रयोग दोस्तों का साथ देना,ख़ुशी-स्फूर्ति और रोमांच मजे के लिए भी अब तो लोग शादी जैसे समारोह में भी मजे व उत्साह के नाम पर शराब का सेवन कर रहें हैं।
बड़े दुःख और आश्चर्य की बात है कि समाज,सरकार एवं प्रशासन इन गम्भीर समस्या से अवगत होते हुए भी अत्यधिक आर्थिक आय के लोभ के कारण बढ़ावा दे रहीं है।

नशा व अपराध जुड़वाँ बहने है -

नशा व अपराध के आंकड़े हमें यह कहने पर मजबूर ही करते है कि दोनों जुड़वाँ बहने है।
भारत में शराब की वार्षिक ख़पत लगभग 5.38 बिलियन लीटर और 2020 तक बढ़कर यह 6.53 बिलियन हो जाएगी।
मणिपुर, मिजोरम, पंजाब,उत्तर प्रदेश आदि में बड़ी मात्रा में ड्रग्स ज़ब्त हो रही है भारत मे लगभग 8 करोड़ लोग ड्रग्स ले रहे है और तो और युवा और किशोर तो बढ़-चढ़ कर।
जैसे-जैसे समाज में शराब और ड्रग्स की ख़पत बढ़ती जा रही है वैसे अपराध की दर भी बढ़ती जा रही है

लगभग 80%बाल अपराधी शराब ड्रग्स का दुरुपयोग करते है एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 49%अपराधी उनकी गिरफ्तारी के समय शराब पिये होते है शराब हिंसक अपराधों,हत्या,बलात्कार,यौन उत्पीड़न, हमला बच्चों आदि के निकटता से जुड़ा हुआ पाया गया है नशे में ड्राविंग के लिए सलाना लाखों लोग गिरफ्तार किये जाते है बलात्कार और यौन उत्पीड़न में 95% हमलावर शिकार जान कर होते है।
घरेलू हिंसा के मामलों में 55% शराब और 9%मादक पदार्थों का सेवन किये होते है नशा प्रत्येक अपराध को जन्म देता है लगभग सभी छोटे-बड़े अपराध में इसका 78% सेवन होता है बालात्कार जैसे गंभीर अपराधों में इसका 87% तक सेवन होता है।
2015 नारकोटिक्स ड्रग्स एक्ट (NDPS) के तहत 50796 और 2014 में 43290 केस दर्ज किये गये जिसमे सबसे अधिक पंजाब 16821,उत्तर प्रदेश 6180,महाराष्ट्र 5989,तमिलनाडु 1821,राजस्थान 1337,मध्य प्रदेश 1027 और सबसे कम गुजरात73, गोवा 61,सिक्किम 10 केस दर्ज है।
                        
 समाधान -



नशा केवल एक व्यक्ति नही अपितु उसका परिवार या कहे हो पूरा समाज ही प्रभावित होता है इस के लिये हमें स्वयं जागरूकता दिखाकर इस दलदल में फंसे लोगों को निकलने का प्रयास करना चाहिए।
तो आइये आज नव वर्ष के इस शुभ  दिन को 'अपने स्वच्छ भारत के संकल्प के साथ -साथ नशा मुक्त भारत बनाने का भी संकल्प ले'

                                                  धन्यवाद
                    

                   

रविवार, 26 नवंबर 2017

शहीदों को नमन

                 शहीदों को नमन।                                            26/11                            आज 26/11 की नौवीं बरसी पर सलाम है उस जज़्बे व जुनून को जिसने आज से 9 साल पहले मुंबई को बचाने के लिये कुछ जाबाज सिपाहियों ने आतंकियों के गोलियों के सामने खड़े होकर अपनी जान पर खेल कर मुंबई को आतंकियों के खूनी खेल से बाहर निकाला। आज इसी सहादत को याद करने का दिन है
            
                     


याद दिला दे कि इस घटना में 166 लोगों की जान चली गई जिसमें 138 भारतीय और 28 विदेशी लोग थे 308 लोग से ज्यादा घायल हो गए थे ये पूरा ऑपरेशन 60 घंटे तक चला।

                                   

 इन 10 हमलावरों ने अलग-अलग होकर लियोपोल्ड कैफ़े,छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, ओबरॉय होटल,ताजमहल होटल,कामा अस्पताल, नरीमन हाऊस, मेट्रो सिनेमा,टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग इत्यादि जगहों पर मौत का भयानक तांडव चलाया।    


              जरा आँख में भर लो पानी।                                
                                       
26/11 की वो काली रात जिस में इन शहीदों ने अपनी जान पर खेलकर मुंबई को बचाया था उस रात जब देश के इन बहादुर सिपाहियों के शहीद होने की खबरें एक-एक कर जब टीवी पर आने लगी तो इन के परिवार वाले ये खबर सह नही पाये उस वक़्त मुंबई ATS प्रमुख हेमंत करकरे, एसीपी अशोक कामटे, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर,NSG कमांडो संदीप उन्नीकृष्णन, असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर तुकाराम गोपाल ओंबले सहित कुल 14 पुलिस वालों ने अपनी जान पर खेल कर मुंबई को बचाया था

        10 में 9 मारे गये जबकि 1 जिंदा पकड़ा गया  अजमल आमिर क़साब जिसे असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर तुकाराम गोपाल ओंबले ने जिंदा पकड़ लिया था तब उन के पास केवल एक डंडा था कसाब ने अपने आपको छुड़ाने के लिए तुकाराम को गोली भी मार दी थी। लेकिन खून से लथपथ तुकाराम ने कसाब को नही छोड़ा था।बाद में वे कसाब की गोली से शहीद हो गए। कसाब को 27 नवम्बर 2008 को गिरफ्तार हुआ जिसे 4 साल बाद लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद 21 नवम्बर 2012 को फांसी पर लटका दिया गया।
तुकाराम को मरणोपरांत अशोक चक्र से भी नवाजा जा चुका है ऐसे वीर तुकाराम को मेरा सलाम।                                       
                                                       धन्यवाद                                                      

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

आरक्षण पर सवाल

                     आरक्षण पर सवाल
मैं बात करने जा रहा हूँ उसी आरक्षण की जो अपने ही लोगों का हक़ मार रही है जिसे राजनीतिक पार्टियां बड़े चाव से खाती व परोसती है हाँ यह वही आरक्षण है जिसको लेकर उच्चतम न्यायालय भी अपने प्रश्नो से वंचित न रह सका।
बात पिछले दिनों की है जब पदोन्नति में आरक्षण के मसले पर एक याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट को अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण में क्रीमी लेयर की याद तो आई।
नही तो शायद कितने साल और लग जाते इस मंद सोच को पनपने में।                      
                                                      

ये लोग अपने ही लोगों का हक खा कर डकार भी नही लेते और डकार आये भी क्यों सवाल आज जो आया है?
और हर राज्य में किसी न किसी को आरक्षण की भूख लगीं बैठी है जो न तो वंचित शोषित तबके में आते है और न ही सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों में चुकी राजनीतिक दल आरक्षण मांग रहे समुदायों को नाराज करने की स्थिति में नही होते इसलिए वे उनकी मांग का विरोध भी नही कर पाते ।
एक समस्या यह भी है कि वे वोट बैंक बानने के फेर में आरक्षण की मांग करने वाले समुदाय के समर्थन में खड़े हो जाते है
                     
                     सवाल सुप्रीम कोर्ट का
जब सरकार द्वारा एक आयोग बनाकर ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण करने की पहल की और इसके लिए एक आयोग का गठन भी कर दिया। तभी यह सवाल उठा था कि यदि ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण किया जा सकता है तो एससी-एसटी का क्यो नही? इस सवाल पर किसी ने ध्यान नही दिया       
                                                                      
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के  इस सवाल की अनदेखी करना मुश्किल है
इसी सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट का  यह सवाल है कि क्या एससी-एसटी वर्ग के सामाजिक,शैक्षणिक एवम आर्थिक रूप से योग्य हो चुके लोग अपने लोगों का अधिकार नहीं छीन रहे है

आरक्षण में क्रीमी लेयर
ओबीसी आरक्षण की तरह एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान क्यों नही है? एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान न होना इसलिये एक तार्किक सवाल है, क्योंकि ओबीसी आरक्षण में उक्त प्रावधान शामिल है। यह प्रावधान इस लिए बनाया गया था ताकि ओबीसी के सम्पन लोगों को आरक्षण का लाभ उठाने से रोक जा सके

क्योंकि ओबीसी आरक्षण की तुलना में एससी-एसटी आरक्षण बहुत पहले से लागू है तो क्या बीते सात दशको में आज तक कोई एससी-एसटी में सामाजिक,शैक्षणिक और आर्थिक रूप से सम्पन नही हो पाया है अगर सम्पन नही हुआ तो फिर इसका मतलब यह कि आरक्षण उपयोगी साबित नही हो रही है अगर सम्पन लोग सामने आए तो इस का क्या औचित्य की पीढ़ी दर पीढ़ी ये आरक्षण का लाभ उठाते रहे?
दुर्भाग्य से जिन्हें यह सवाल करना चाहिए वह तो अपनी रोटियां इसी आग में सेक रहे है

एक सवाल और
आरक्षण को लेकर एक सवाल यह भी है कि प्रतिभा को नकारने वाली आरक्षण व्यवस्था कहा तक उचित है जब शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण दिया जा रहा है तो फिर नौकरियों में आरक्षण का क्या औचित्य?
यह सही समय है कि राजनीतिक वर्ग इस पर सहमत हो कि आरक्षण को इस रूप में लागू करने की आवश्यकता है जिससे एक तो पात्र लोग ही लाभान्वित हो सके और दूसरे प्रतिभा की उपेक्षा न हो ।
ऐसी व्यवस्था का निर्माण तभी संभव होगा जब यह स्वीकार किया जाएगा कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था में कई विसंगतिया घर कर गई है और वो समाज व देश को प्रभावी कर रही है।

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

बेटियों का क़ुसूर !

                         बेटियों का क़ुसूर।                                        इस घटना को पढ़ कर आप भी कहेंगे कि"अगले जनम मोहे बिटियां न कीजो" घटना अमृतसर से सहरसा जा रही जनसेवा एक्सप्रेस में एक बेरहम पिता ने अपनी चार मासूम बेटियों को चलती ट्रेन  से नीचे फेंक दिया।   
            
                                                                                                                                                                घटना मंगलवार प्रातः की है जिसमें छः वर्षीय बालिका का शव ट्रैक के किनारे जबकि दो मासूम बालिकाएं रेलवे ट्रैक पर घायल मिली और एक बच्ची अगले दिन बुधवार को मिली जिसे केजीएमयू ट्रॉमा सेंटर फेजा गया।
दो मासूम जो गंभीर रूप से घायल थी लेकिन इन घावों पर भारी थी भूख की पीड़ा जब लोग उनके पास पहुुंचे तो उन्होंने
खाने को मांगा यह देख सभी असहज थे
आख़िर बच्चियां कितने दिनों से भूखी है कि घाव का दर्द भी फीका पड़ गया कहीं घटना के पीछे तो भूख जिम्मेदार तो नही यह तो बेरहम अपनो के तलाश के बाद ही पता चलेगा।
आइये अब बात करते है कि जहाँ चारों तरफ बेटी बचाओ के  नारो के बीच यह घटना शर्मसार कर देंने वाली है एक अभिभावक की अपनी बेटियों के प्रति इतना निर्दयी हो सकना विश्वास नही होता।
बेटियां टूटे-फूटे शब्दों में बता रही है कि पिता ने ही बाहर फेका पर मौक़े पर माँ व मामा की भी मौजूदगी हैरान कर देने वाली है।



सच तो यही है कि सरकार कितने भी अभियान चला ले 'समाज मे बेटियों को अब भी बोझ माना जाता है'

इस से यही पता चलता है कि सोच में परिवर्तन की रफ्तार बहुत ही मंद है लोग बदलने को तैयार नही वरना क्या वज़ह है कि ट्रेन से फेंकी गई सब की सब बेटियां ही हैं।
इस हृदय विदारक घटना के पीछे जो भी हो उसे सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिये ताकि औरों को सबक मिल सके।
       
                                                                       धन्यवाद

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

बुजुर्गों की स्थिति

                            बुजुर्गों की स्थिति                                                                                                           हम बात उस सच की कर रहे जिसे हम अपने युवावस्था में भूल जाते हैं, भारत एक नवजवान देश है यह कहकर हम बुजुर्गों की अनदेखी कर रहे हैं 1अक्टूबर (International Day of Older Persons) आते ही हम बुजुर्गों की दयनीय स्थिति की चर्चा,समाज मे इस दिन बुजुर्गों को दया के भाव से देखा जाता है।
पर इस एक दिन के बाद इन चर्चाओं को सीमित कर दिया जाता है आखिर क्यों?
आजादी के 70 साल बाद भी कोई इन पर बात करने को तैयार तक नही है आख़िर क्यों ?

                                                                                                                                                                "विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्राऐं व्यर्थ है
    यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ है"

        

  बात बुजुर्गों की

                 
 
"कैक्टस को तो सजाकर वो गुलदान में रखता है     
      माँ-बाप को गैराज या दलान में रखता है"            

हमारे देश में 60 साल के बाद किसी भी व्यक्ति को मुख्यधारा से काट दिया जाता है और देश के विकास में इनकी स्थिति को शून्य मान लिया जाता है
देश मे बुजुर्गों की संख्या 10करोड़ 38लाख है,1करोड़ 50लाख अकेले रहने को मजबूर,5.5करोड़ बुजुर्ग रोज़ाना भूखे पेट सोते है।
हर 8में से एक बुजुर्ग को यह लगता है कि उनके होने या न होने से कोई फर्क नही पड़ता इसी बात का उदाहरण मैं बताना चाहता हूं बात मुंबई की है अमेरिका में रहने वाले एक बेटे ने अपने माँ से लगभग 1साल 4महीने तक कोई बात नही की वापस आने पर उसे केवल माँ का कंकाल मिला,
ये उस माँ का कंकाल नही ये रिश्तों का कंकाल है
आज भी 90% बुजुर्गों को सम्मान से जीने के लिए सारी उम्र काम करना पड़ता है
इसी प्रकार 2026 तक बुजुर्गों की संख्या 17 करोड़ तक हो जाएगी।
            बात सम्मान और सुधार की



बात बुजुर्गों की स्थिति को सुधारने की है हो हम चीन के शहर शांघाई से शिक्षा ले सकते है यह बुजुर्गों की अनेदखी करने पर माँ-बाप द्वारा उन पर केस किया जा सकता है
इस से संतान के क्रेडिट रिपोर्ट पर असर पड़ता है जिससे कर्ज लेने में असुविधा व अन्य वित्तीय सुविधा लेने में दिक्कत होंगी।
इस दिशा में असम राज्य द्वारा एक पहल किया गया है इस योजना को "प्रणाम"(पेरेंट रिसपॉन्सिबिलिटी एंड नॉर्म्स फॉर एकाउंटेबिलिटी एंड मॉनिटरिंग) है इस योजन के तहत यदि राज्य का कोई भी कर्मचारी अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करता है तो उस के वेतन से 10-15%काट कर माता-पिता को दे दिया जाएगा
ऐसी ही योजन पूरे देश मे होनी चाहिए ताकि बुजुर्गों को सम्मान मिल सके।
बुजुर्गों से बात करने पर वे बताते है की सड़क हो या बैंक या कोई अन्य स्थान उन से बुरा व्यवहार किया जाता है उन के कपड़ों को देखकर उनकी अवहेलना की जाती हैं।
             आइये कुछ करे उनके लिए
"माँ-बाप की कमी को कोई बाँट नही सकता और ईश्वर भी इनके आशीषों को काट नही सकता"
आइये हम समाज को साफ करने के संकल्प के साथ अपने परिवार के बुजुर्गों को सम्मान देने का भी संकल्प ले,जिससे समाज के साथ -साथ ही हम घर के माहौल को साफ व सम्मानजनक बनाये।
जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी भी सबक ले।..