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रविवार, 12 मई 2019

माँ है तो मुमकिन है।

               माँ है तो मुमकिन है।
माँ है तो कुछ भी मुमकिन है,क्योंकि दुनिया के किसी छाव में उतना सुकून नहीं जितना माँ के आँचल में है। दुनिया में ऐसा कोई बिस्तर नहीं जो माँ के गोद से भी बढ़िया नींद ला दे,दुनिया मे ऐसा कोई नहीं जो माँ-बाप का स्थान ले सकें। तो माँ-बाप के बिना इस सृष्टि की रचना अधूरी है।
जहाँ पिता अपने गुस्से से ही प्रेम को दिखाता है वहीं माँ अपने आँचल में छुपाकर उस प्रेम को दुगुना कर देती है, 
दुनिया में शायद ही किसी ने इनके इतना तपस्या किया हो,इतिहास में तो बहुत महान योद्धा मिल जायेंगे परंतु वर्तमान में माँ-बाप के इतना महान योद्धा कहीं नही मिलेगा।क्योंकि अपने बेटे/बेटी के लिए हर जंग लड़ने को तैयार रहते हैं।
कुछ पक्तियां हैं,मैं पढ़ता हूँ मुझे अच्छी लगती है-
बहुत रोते है लेकिन दामन हमारा नम नहीं होता,
इन आँखों के बरसने का कोई मौसम नहीं होता,
मैं अपने दुश्मनों के बीच भी महफूज़ रहता हूँ,
मेरी माँ की दुआओं का खजाना कम नहीं होता।


गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

सुर्खियों में किसान

               सुर्खियों में किसान।                      किसान उगाता है,तो देश खाता है ये तो सिर्फ अब     कहने की बात हो गई पर क्या जब कोई किसान मरता है तो देश जानता है। जवाब आप लोंग ख़ुद जानते हैं 
और जब एक किसान मरता है तो न ही यह समाचार पत्रों की मुख्य ख़बर होती है और न ही सोशल मीडिया पर इसे देखा जाता है किसान के साथ ही ये ख़बर भी दम तोड़ देती है। और अगर कहीं किसान की ख़बर मिलती भी है तो संपादकीय पृष्ठ पर या कहीं कोने में।
लेकिन वही जब कोई लोकतांत्रिक पार्टी को विजयश्री प्राप्त होती है या किसी नामजद की जेल यात्रा तो पूरा देश इन्हीं खबरों से पट जाता है।
बड़े दुःख की बात है कि 'जो उगाता है वही हर बार क्यो मार खाता है' क्या यही उसकी सजा है।
यहाँ मैं एक बात साफ़ कर देना चाहता हूँ कि न मैं किसी राजनीतिक पार्टी से हूँ ,और न ही किसी किसान मोर्चा दल से, मैं तो उस किसान का बेटा हूँ जो अपना सारा दिन अपनी फसलों को अच्छा करने में लगा देता है और रात में इस डर से नहीं सोता की उसकी फसल बर्बाद न हो जाए, नहीं तो बैंक का कर्ज़ व बेटे की पढ़ाई और पत्नी की दवाई सब रुक जाएगी। और अगर फसले अच्छी हो भी जाये तो क्या बाजार में अच्छे दाम मिल जाएंगे और अगर नहीं मिले तो फिर क्या?
इन्हीं बातों को सोचते हुए उसकी हर सुबह होती है,और खेत फिर उसे अपने बेटे की तरह प्यारे लगने लगते है। और वह पुनः इन्हीं चिताओं में घिरा रहता है कि कही बेटे-बेटी की पढ़ाई न रुक जाए,कहि पत्नी की दवाई न रुक जाए,और अंत में होता क्या है उसकी साँसे ख़ुद ही रुक जाती है।
तब पता चलता है कि बैंक का कर्ज न चुकाने व बाजार में फसल के औने-पौने दाम मिलने से एक और किसान का परिवार व पूरा देश पुनः अनाथ हो गया।
                                                      धन्यवाद।

बुधवार, 7 नवंबर 2018

Diwali


बस का इंतज़ार करते हुए,
मेट्रो में खड़े-खड़े
रिक्शा में बैठें हुए
गहरे शून्य में क्या देखते रहते हों?
गुम सा चेहरा लिए क्या सोचते रहते हो?
क्या खोया और क्या पाया का हिसाब नहीं लगा पाये ना इस बार भी?
घर नहीं जा पाए ना इस बार भी?
                                           धन्यवाद

रविवार, 16 सितंबर 2018

साथी हाथ बढ़ाना।



साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा मिल कर बोझ उठाना साथी हाथ बढ़ाना.........
इन पंक्तियों में एक प्रकार की एकता स्पष्ट झलकती दिखती है चाहे वह किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो।
मैं बात स्वच्छता की कर रहा हूं ।
इस से पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं किसी भी राजनीतिक दल से नहीं हूं और अब आगे........
मैं पहले तो उस व्यक्ति विशेष को धन्यवाद देना चाहता हूं जिसने इस अभियान को देशव्यापी बनाया और तो और यह बात किसी एक व्यक्ति के लाभ व स्वार्थ के लिए नही बल्कि पूरे देश के स्वास्थ और जीवन को बेहतर बनाने की लिए की जा रही है।
आज से ही मुझे,आपको, बल्कि हम सभी को मिलकर सिर्फ अपने आस-पास के इलाके को स्वच्छ करना होगा, और दूसरों को भी जागृत करना होगा।
जैसा कि मेरी पहली पंक्ति में ही यह स्पष्ट है कि सबको एक साथ आना होगा तभी हम परिणाम को भी बखूबी देख पाएंगे।
इस विषय पर जितना भी लिखे कम ही है क्योंकि बात लिखने से नही करने से बनेंगी।
इसलिए सिर्फ एक अपील भारत का एक नागरिक होने के नाते,भारत को स्वच्छ बनाने के लिए,
मुझे विश्वास है,की आप लोग इस संदेश को अन्य लोगों तक पहुचायेंगे और स्वच्छता से जुड़े अपने अनुभव व चित्र फेसबुक व व्हाट्सएप पर सबके साथ साझा करेंगे।
            धन्यवाद

रविवार, 13 मई 2018

माँ


आज का विषय माँ है, जिस पर मैं कुछ निवेदित कर रहा हूँ जब समूचा ब्रह्मांड उद्घोष करता है तो माँ जन्म लेती है यह वो स्त्री है, जो समय के साथ बदलती है बदलती ही नहीं वरन समय को बखूबी थाम भी लेती है।
माँ जब अपने झुर्रियों भरे हाथों से आशीर्वाद देती है तो सफलता के नये मापदंड और प्रतिरूप तय हो जाते हैं।
मुझे नहीं पता कि किनकि माँ जिवित हैं और किन्होंने माँ को खो दिया है पर मेरा व्यक्तिगत मत है कि जिनकी माँ जिवित हैं जिनके पिता जिवित हैं वो दुनिया के सबसे सम्पन्न लोग हैं, वो दुनिया के सबसे अमीर लोग हैं।
एक मिनट बचपन में लौटियेगा जब हम बहुत छोटे थे जब माँ की गोद में थे तब हम माँ का स्तनपान करते थे और उसी समय अपने नन्हें-नन्हें पैरों से माँ को मारा करते थे पर उस माँ ने हमें कभी भी दूध पिलाना बंद नहीं किया।
मित्रों लात खाकर भी अगर भोजन देने की शक्ति उस परम पिता परमेश्वर ने किसी को दी है तो वो हैं माँ
पृथ्वी पर मनुष्य भगवान को ढूँढ़ता है और न जाने क्यों मेरा मानना है कि भगवान का ही रूप है माँ जिसको बोलने में ही ममता का भाव स्पष्ट सुनाई देता हैं।
माँ शब्द सुनते ही ज़ेहन में एक अलग आनंद की अनुभूति होती है और आज भी वो एक फ़िल्मी डायलॉग जो शायद किसी को न भूला हो 'मेरे पास माँ है'। सुनते ही हृदय में एक ममता का अविरल भाव उतपन्न हो जाता है। 
           

बहुत रोते हैं लेकिन दामन हमारा नम नही होता,
इन आँखों के बरसने का कोई मौसम नहीं होता,
मैं अपने दुश्मनों के बीच भी महफ़ूज रहता हूँ,
मेरी माँ की दुआओ का खजाना कम नहीं होता।

माँ जिसमें संवेदना है, भावना है, त्याग है, ममता है, प्यार है, पवित्रता है और यूँ कहें तो संसार के सारे गुण विद्यमान है।
माँ अपने लिये नहीं अपनों के लिए जीती है।
पुनः एक बार बचपन में लौटियेगा जब परीक्षा देते जाते समय दही का कटोरा ले हमारे सामने शगुन बन खड़ी हो जाती वो माँ ही हैं।
हर परिस्थितियो में ढाल बनकर खड़ी होने वाली वो माँ ही हैं,
यहाँ तक कि पापा के मार से बचाने वाली वो माँ ही हैं।
धूप में अपने आँचल का छाव देने वाली वो.........

गीता, क़ुरान और बाइबल का सार है माँ
दुनिया और संसार है माँ...............

                                        ऐसी हर माँ को शत-शत नमन....

शनिवार, 17 मार्च 2018

समाज मे बेटियों की स्थिति

                 समाज में बेटियों की स्थिति

               

आज हम बात बेटियों की स्थिति के विषय पर करने जा रहे हैं। सरकारी वादों व तमाम समाज सेवी संस्थाओं ने बेटियों के प्रति प्रोत्साहन में कोई कमी नहीं छोड़ी, पर कई क्षेत्रों में तो बेटियाँ उच्च शिखर पर हैं और कहीं तो इस समाज के कुंठित सोच के दलदल में फँसकर और फँसती जा रही हैं।
सरकार के तमाम वादे तो बहुत ही सजग व सही दिशा में हैं।
परन्तु सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी इस पुरुष प्रधान देश मे कहीं तो बेटियों की स्थिति खिलते फूल के समान हैं तो कहीं सूखे पत्ते से भी बत्तर, जिसे अपने समाज में शिक्षा से भी वंचित रखा जाता है।
आज भी कई राज्यों में लिंगानुपात में कहीं ज़्यादा बढ़ोत्तरी नहीं हुई है, पर यहाँ हम शासन को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते, क्योंकि शासन तो सिर्फ़ प्रोत्साहित करेगी, पर सोचना और शासन के कार्यों को मूर्त रूप देना तो जनता की सोच पर निर्भर करता है।.



                    लक्ष्मी का वरदान है बेटी,
                   धरती पर भगवान है बेटी।

हमारे देश के प्रधानमंत्री जी ने तो यह ठान लिया है कि हम बेटियों की स्थिति बेहतर करेंगे, पर क्या वह कम लिंगानुपात वाले राज्यों में उन घरों के लोगों तक अपनी इस बात को पहुँचा पाएँगे, जिन्हें तो सिर्फ़ बेटों की भूख है ज़रा यह भी तो सोचो कि "बेटी नहीं बचाओगे,तो बहु कहाँ से लाओगे"।

चिंता का विषय

आज भी ग्रामीण इलाकों की बेटियों में शिक्षा का आभाव देखने को मिल रहा है, किसी-किसी प्रकार से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई कराके इन्हें घर के कामों में लगा दिया जाता है, या फिर इनका विवाह कर दिया जाता है।
बड़ी मुश्किल से आज कोई अभिभावक अपनी बेटी को शिक्षा के लिए घर से दूर भेज देता है, तो गाँव घर के तानों से भी नहीं बचता, पर यही कुछ लोगों की नज़रों
में तो बेटियाँ अभिशाप हैं और उनकी राय यही होती है कि "जननी को जननी के गर्भ में ही मार दो"क्योंकि 'ना रहेगा बाँस, और ना बजेगी बाँसुरी'।
लोग ये क्यों भूल जाते हैं, कि वे भी किसी जननी की ही देन हैं।
तुम्हारी माँ, पत्नी, बेटी, बहन, बहू, आदि, ये सभी बेटियाँ ही तो हैं।
प्रयास तो जारी है पर समस्या यह है, कि समाज में जब तक ये कुंठित सोच वाले लोग रहेंगे, तब तक अपनी गंदी सोच समाज मे बिखेरते रहेंगे। किसी ने सही कहा है कि अभी सौ सालों तक कुछ बदलने वाला नहीं है और ये सुधरने वाले लोग नहीं हैं।
जरा सोचिए कुछ राज्यों में तो महिलाए ही भ्रुण हत्या का समर्थन करती हैं, ये कैसी महिलाएँ हैं, सोच कर ही मन विचलित हो जाता है।

बेटी बचाओ और जीवन सजाओ,
                          बेटी पढ़ाओ और ख़ुशहाली बढ़ाओ।


शिक्षा के क्षेत्र में

शिक्षा के क्षेत्र में बेटियों की सफ़लता की कहानी लिखना शुरू करूँ तो स्याही कम पड़ जाए। चाहें वह शिक्षा, खेल या अंतरिक्ष की बात हो।
 पर आज भी ग्रामीण इलाकों का हाल वही है, स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है पर ज्यादा कहना गलत होगा।
ज्यादा से ज्यादा हाईस्कूल व इंटरमीडिएट तक पढ़ा कर इन्हें घर के कामों में लगा दिया जाता है, जो लोग यहाँ पढ़ाने में सक्षम हैं उनका भी हाल यही है।
जो लड़कियाँ कुछ करने के लिये अपने कदम बढ़ाती हैं तो कुछ अभिभावक ही उनके रास्ते का रोड़ा बन जाते हैं।

बेटियों को पढ़ाओगे,
             तो
                 इज्जत मुफ्त में पाओगे



देवी मत मानो बस दे दो सम्मान

यह हमारे समाज का दोहरा रवैया नहीं तो और क्या है कि एक तरफ बड़ी-बड़ी बातें तो दूसरी तरफ उसे गर्भ में ही मार दो।
बेटियों को देवी मानने या कन्या खिलाने का जो रिवाज़ है वह अपनी जगह है, लेकिन बेटियाँ ही शक्ति हैं। यदि मानते हैं तो उनका हक क्यों नही देते,उन्हें जन्म क्यों नहीं लेने देते?
सच है कि नवरात्र के दौरान देवी भक्ति में डूबे बहुत से लोग बस रस्मों को निभाने में तेजी दिखाते हैं, लेकिन यथार्थ से काफी दूर हैं। लोग रात-रात भर जागरण में देवी का गुणगान करते हैं, पर वास्तविकता यह है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा नहीं चाहता कि कन्या रूपी ये देवियांँ उनके यहाँ जन्म लें। पाप-पुण्य के सवालों से जूझता समाज इसे पाप क्यों नहीं मानता? इसे मानवीयता के लिहाज़ से देखने की बात तो दूर इसका सामाजिक दुष्प्रभाव क्या होगा शायद इसका भी ज्ञान नहीं।

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

भूलतीं,विसरती यादों में।

                   भूलतीं, विसरती यादों में
                     कठकुइयाँ शुगर फैक्ट्री

मैं इसलिये इस मुद्दे पर लिख रहा हूँ क्योंकि जिनका बचपन इसी फैक्ट्री के धुओं को अपने नन्हे हाथों से छाटते हुये बिता हो और जिनकी जवानी में विद्यालय का थैला इसी की सीटियों के साथ उठता रहा हो, जिनके घरो का चूल्हा इसी के सीटियों पर जलता हो उन्हें तो ये फैक्ट्री अपने जीवन में कभी नही भूलनी चाहिये।
आज दिनों दिन इस फैक्ट्री का अस्तित्व  और लोगों की यादों का समंदर सूखता जा रहा है  या यह कहें तो फैक्ट्री को जड़ से तोड़ा जा रहा है सुना था कि जब हमारे सामने हमसे जुड़ी हुईं चीज़े मिटती है तो अफ़सोस तो होता ही हैं पर उस से कहीं ज़्यादा अंदर की कसमसाहटो का सैलाब या यूं कहें तो सुनामी सी आ जाती हैं।


हमारे गाँव से क़रीब 3 किमी की दूरी पर कभी चालू हालत में ये फैक्ट्री हुआ करती थी जिसकी जड़ें भी आज निस्तोनाबूत होतीं जा रही हैं बताने वाले तो ये बतातें हैं कि जब यह चालू हालत में थी तो अगल-बगल के गांवों सहित कठकुइयाँ में भी एक अलग तरह का खुशनुमा माहौल हुआ करता था लेक़िन 1998 के पेराई सत्र में बढ़ते कर्ज़ के कारण शुरू न हो सका और इसी वर्ष से किसानों की और फैक्ट्री के कर्मचारियों की मुसीबतों ने जन्म लेना शुरू किया। कितनों के घरों से रौनक ही छीन गई और कितनों के तो अपने बकाया भुगतान राशि पाने के आश में  जिंदगी के दीपक ही बुझ गए।
आज जो सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां दूर-दराज से आये कर्मचारियों का वेतन बकाया होने के कारण वे इसी आश में यहीं फैक्ट्री के आवासों में रहने लगे कि आज नहीं तो कल किसानों के बकाये के साथ इनका भी भुगतान हो जाएगा पर भुगतान तो न हो सका पर आज जिनके सिर से छत भी छिनने की कोशिश में इस मिल का खरीददार लगा हुआ हैं तो वो क़भी फैक्ट्री के कर्मचारी हुआ करते थे
पर आज उन्हीं के सामने उनकी यादों के पुलों को झकझोर कर गिराया जा रहा है तो यही लोग अपने पैसे को भुलाकर अपनी छत के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं। 



किसानों की व्यथा और विकास बाधित

जब फैक्ट्री चालू हालत में थी तो बतानें  वाले लोग तो यहीं बताते है कि जब गन्ना सत्र प्रारम्भ होता था तो यहाँ बैलगाड़ियों, ट्रैक्टरों व किसानों का हुजूम देखते बनता था किसानों कि आपसी बातों व चाय की चुस्कियों के साथ एक प्रतिस्पर्धा का भाव झलकता था
पर आज वो हुजूम न जाने कहा गायब हो गया। और प्रतिस्पर्धा तो खत्म ही हो गया अब तो इस इलाक़े का विकास भी बाधित हो गया और किसानों की हालत तो दिन ब दिन बद से बत्तर होती जा रही है और अपना गन्ना औने-पौने दामों पर बेच कर मुनाफ़ा तो दूर लागत भी नसीब न हो रहा है।

एक बार आकर देख, कैसा हृदय विदारक मंजर है,
पसलियों से लग गयी है आंतें, खेत अभी भी बंजर है।

जनता की उम्मीदों पर खरा न उतरा राजनीतिक तबका

चुनावी जुमले व मिल मालिकों की चालाकी का अंजाम आज कठकुइयाँ में काम कर रहें कर्मचारी व किसान तबका अपने सोने के पहाड़ को रुई की ढेर की तरह उड़ता हुआ देख रहा हैं हाल ही कि एक घटना चुनावी रैलियों में माननीय लोकप्रिय प्रधानमंत्री जी व इस क्षेत्र के सांसद जी ने कठकुइयाँ जैसी अन्य 9 मिलो में से कुछ को चलाने का वादा किया था इसमें पडरौना का नाम प्रमुख था पर हुआ क्या?
किसानों से अब कहाँ वो मुलाकात करते है,
बस रोज नये ख्वाबों की बात करते है।

दो शब्द(किसानों के लिए)

हर वक़्त हर जगह किसानों की ही बात सुनता हूं टेलीविजन से लेकर सोशल मीडिया तक पर न जाने कब उनके बाग हरे भरे होंगे औऱ न जाने कब उनकी गलियाँ गुलजार होगीं। औऱ न जाने कब ये भी गर्व से बोल सकेंगे कि मैं भी किसान हूँ। और न जाने कब हमारी आँखों मे इस अन्नदाता के लिए सम्मान का दीप जलेगा।और न जाने कब सर पर पगड़ी बाँधे उस किसान को हम सम्मान से देखेंगे।

मर रहा सीमा पर जवान और खेतों में किसान
कैसे कह दूं इस दुःखी मन से की मेरा भारत महान।
                                      धन्यवाद